आज के दौर में मनोरंजन के आधुनिक साधन मौजूद है जैसे कि फिल्म, टेलीविजन प्रोग्राम और OTT प्लेटफॉर्म्स पर मौजूद अनगिनत शोज। लेकिन इन सबसे पहले मनोरंजन का एक मात्र साधन जो आज से करीब 100 साल पहले मौजूद था वह है 'नौटंकी' और इसके बाद आया सिनेमा। साल 1913 में मूक फिल्मों (Silent Films) का दौर शुरू हुआ और 'राजा हरिश्चंद्र' रिलीज़ हुई।
फिर इसके बाद 1918 में फिल्म 'लंका दहन' और उसके बाद 'कृष्ण जन्म' जैसी फिल्में लोगों को देखने को मिली। साल 1925 से लेकर 1975 तक भारत के कई महान फिल्मकारों ने बेहतरीन फिल्में बनायी। भारतीय फिल्मों के इतिहास को देखें तो आप पाएंगे कि चालीस और पचास के दशकों को उसका सुनहरा और अति कार्यशील दौर माना जाता है।
कई सर्वकालिक महान फिल्में इसी दौर में बनाई गई जिन्हे लोग देखकर आज भी मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। जैसे की, मदर इण्डिया, दो बीघा ज़मीन, बरसात, आवारा, श्री 420, प्यासा और कागज़ के फूल जैसी फिल्में उस दौर के फिल्मकारों ने बनाई।
इस लेख के माध्यम से हम आपको भारतीय समानान्तर सिनेमा (Parallel cinema) के इतिहास के सबसे उत्कृष्ट कहानीकारों और फिल्मकारों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिनकी वजह से भारतीय सिनेमा ने पूरी दुनिया में ख्याति पाई और सम्मान मिला।
दादासाहब का पूरा नाम धुंडिराज गोविन्द फालके उपाख्य दादासाहब फालके है और उन्हें भारतीय सिनेमा का पितामह कहा जाता है। दादासाहब का जन्म 30 अप्रैल 1870 को नासिक के निकट त्र्यम्बकेश्वर नामक तीर्थ स्थल पर हुआ था | दादासाहब के पिता धुंडीराज गोविंद फालके नासिक के प्रतिष्ठित विद्वान थे। दादा साहेब ने अपनी शिक्षा कला भवन, बड़ौदा में पूरी की थी और वहीं उन्होंने मूर्तिकला, इंजीनियरिंग, चित्रकला, पेंटिंग और फोटॉग्राफी की शिक्षा ली।
दादा इंग्लैंड से फिल्म निर्माण सीखकर आए थे और नासिक में अपना स्टूडियो बनाया। उन्होंने मई 1913 भारत की पहली मूक फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' का निर्माण किया। इसके बाद उन्होंने 1918 में फिल्म 'लंका दहन' और उसके बाद 'कृष्ण जन्म' बनाई। इन दोनों फिल्मों की सफलता से प्रोत्साहित होकर एक और फिल्म 'कीचक वध' बनाई।
साल 1913 से लेकर 1937 तक दादासाहब ने 95 फिल्में और 26 लघु फिल्मों का निर्माण किया और इसमें उनको 19 साल लगे। सिनेमा में उत्कृष्ट योगदान के लिए भारत सरकार ने दादा के सम्मान में साल 1969 में दादा साहेब फाल्के पुरूस्कार देना शुरू किया।
इस पुरूस्कार को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा भारत के राष्ट्रपति स्वयं प्रदान करते है। यह पुरूस्कार सिनेमा के क्षेत्र में सभी प्रकार के विशिष्ट और उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया जाता है।
महबूब रमजान ख़ान का जन्म 9 सितम्बर 1907 को बिलमिरिया, गुजरात में हुआ था। उनको भारतीय सिनेमा का बेताज बादशाह कहा जाता है और भारतीय सिनेमा को आधुनिकतम तकनीकी से सँवारने में उनका अहम किरदार रहा है। महबूब ख़ान ने अपनी फ़िल्मी करियर की शुरुआत 1927 में प्रदर्शित फ़िल्म 'अलीबाबा एंड फोर्टी थीफ्स' (Ali Baba and the Forty Thieves) से अभिनेता के रूप में की। और भारत की पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' के लिए उनको अभिनेता के रूप में चयन किया गया था। उन्होंने भारतीय सिनेमा को कई अविस्मरणीय फिल्में दी, जिनमें अमर,अनमोल घड़ी, अंदाज़ और मदर इंडिया जैसी महान फिल्में है। मदर इंडिया को हिंदी सिनेमा की एक महान कृति कहा जाता है और यह फिल्म उनकी साल 1940 में आई 'औरत' का रीमेक थी। इस फिल्म को भारत की ओर से ऑस्कर अवार्ड के लिए नॉमिनेट किया गया था। मदर इंडिया को कई भाषाओं में डब किया जा चुका है जैसे कि स्पेनिश, रूसी, फ्रांसीसी आदि।
महबूब खान ने साल 1943 से लेकर 1962 तक कई बेमिसाल फिल्मों का बनाया। उनकी फिल्मों में धनी वर्ग के हाथों गरीबों का शोषण, समाज में वर्गीय संघर्ष और गाँव के जीवन को बड़े परदे पर बेहद ही सुन्दर ढंग से दिखाया।
सत्यजीत रे का जन्म 2 मई, 1921 को कोलकाता में हुआ था। उनके पिता सुकुमार रे एक विख्यात बंगला कवी और इतिहासकार थे। 1940 में कोलकाता विश्वविद्यालय से साइंस और इकोनॉमिक्स में डिग्री लेने के बाद वह टैगोर के विश्वभारती विश्वविद्यालय में सम्मिलित हो गए थे। सत्यजीत रे को प्रमुख रूप से फ़िल्मों में निर्देशन के लिए जाना जाता है, लेकिन उन्होंने लेखक और साहित्यकार के रूप में भी ख्याति अर्जित की। अपने जीवन में 37 फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें फ़ीचर फ़िल्में, वृत्त चित्र और लघु फ़िल्में शामिल हैं। उनकी पहली ही फिल्म 'पाथेर पाँचाली' ने दर्शकों का दिल जीत लिया था और इस फिल्म को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था। इस फिल्म को कान फ़िल्मोत्सव में सर्वोत्तम मानवीय प्रलेख (best human document) पुरस्कार समेत कुल 11 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़ा गया था।
अपराजितो (1956), अपुर संसार (1959), जलसा घर (1958), पोस्ट मास्टर, कंचनजंघा (1962),अभियान (1962), चिड़ियाखाना (1967), घटक की अजांत्रिक (1958), और भुवन शोम (1969) जैसी शानदार फिल्में दर्शकों को दी।
पूरी दुनिया में भारतीय सिनेमा को नई पहचान दिलाने के लिए सत्यजीत रे को 1958 में पद्म श्री, 1965 में पद्म भूषण, 1976 में पद्म विभूषण, 1967 में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार और 1992 में भारत रत्न से सम्मानित किया जा चुका है। इसके साथ ही उनको अपने काम के लिए 32 राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार भी प्राप्त किये।
सत्यजीत रे के काम के बारे में प्रसिद्ध फिल्म क्रिटिक अकीरा कोसोवा ने कहा था कि, ''यदि आपने सत्यजीत रे का काम नहीं देखा तो ऐसा है जैसे संसार में चाँद और सूरज के बगैर जी रहे हैं''।
गुरु दत्त का जन्म 9 जुलाई, 1925 को बैंगलोर में हुआ था और वो हिंदी सिनेमा एक ऐसे महान निर्माता, निर्देशक और अभिनेता थे जिन्हे अपने समय से आगे का फ़िल्मकार कहा जाता है, क्यूंकि उनकी फिल्में आज के आधुनिक युग में भी प्रासंगिक है। भारतीय समाज ने जो आज समस्याएं और त्रुटियाँ अब से आधे शतक पहले मौजूद थीं वह सभी आज भी वैसी ही हैं। उनकी साहित्यिक रुचि और संगीत की समझ की झलक उनकी सभी फ़िल्मों में दिखती है। यद्यपि उन्होंने 50 से भी कम फिल्में बनाई है, लेकिन इसके बावजूद उनको हिंदी सिनेमा का सबसे बेहतरीन धरोहर माना जाता है।
उन्होंने 1944 में फिल्म 'चाँद' से एक अभिनेता के रूप में अपना फ़िल्मी करियर शुरू किया था। साँझ और सवेरा, सौतेला भाई, सुहागन, प्यासा, साहिब बीवी और गुलाम, कागज़ के फूल आदि जैसी फिल्मों में शानदार अभिनय किया। इसके साथ ही आर पार, बाज़ी, सैलाब आदि जैसी फिल्मों का निर्देशन भी किया। गुरु दत्त कलात्मक फ़िल्म बनाने की वजह से काफ़ी प्रसिद्ध हुए और उन्होंने कलात्मक फ़िल्मों के माध्यम से हिंदी सिनेमा को एक नई ऊंचाई दी। उनकी लोकप्रिय फ़िल्मों में कागज के फूल, प्यासा, साहब बीबी और ग़ुलाम आदि शामिल हैं। टाइम पत्रिका ने वर्ष 2005 में भी ‘प्यासा’ को सर्वश्रेष्ठ 100 फ़िल्मों में शामिल किया था। 2011 में ‘प्यासा’ को टाइम पत्रिका ने वैलेंटाइन डे के मौक़े पर सर्वकालीन रोमांटिक फ़िल्मों में शामिल किया था।
गुरु दत्त का 10 अक्टूबर 1964 को रहस्यमय स्थिति में 39 वर्ष की उम्र में निधन हो गया था और उनकी मौत की वजह आत्महत्या बताई जाती है।
गुरु दत्त ने एक बार कहा था- "देखो न, मुझे निर्देशक बनना था, बन गया। अभिनेता बनना था, बन गया। पिक्चर अच्छी बनानी थी, बनाई। पैसा है सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा।"
भारत के सबसे बड़े शोमैन कहे जाने वाले राज कपूर का जन्म पठानी हिन्दू परिवार में 14 दिसंबर, 1924 को को पेशावर (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उनको अभिनय विरासत में ही मिला था और वो एक उत्कृष्ट निर्माता और निर्देशक भी थे। राज कपूर भारत, मध्य-पूर्व, तत्कालीन सोवियत संघ और चीन में भी अत्यधिक लोकप्रिय हैं। उनके पिता का नाम पृथ्वीराज कपूर तथा उनकी माता का नाम रामशर्णी देवी कपूर था। पृथ्वीराज कपूर भी एक महान अभिनेता थे जिन्हें हिंदी सिनेमा का पितामह माना जाता है। पृथ्वीराज कपूर ने भारत की पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' में सहायक अभिनेता के तौर पर अभिनय किया था। इससे पहले पृथ्वीराज कपूर ने भारत की नौ मूक फिल्मो में भी काम किया था।
राज कपूर का पढ़ाई में कभी मन नहीं लगा इसलिए उन्होंने 10वीं कक्षा की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी। इसके बाद उन्होंने 1930 के दशक में बॉम्बे टॉकीज़ में क्लैपर-बॉय और पृथ्वी थिएटर में एक अभिनेता के रूप में काम किया। और बाल कलाकार के रूप में 'इंकलाब' (1935) और 'हमारी बात' (1943), 'गौरी' (1943) जैसी फिल्मों में छोटे छोटे रोल किये। 1948 में केवल 25 साल की उम्र में उन्होंने फिल्म 'आग' का निर्माण और निर्देशन किया।
1950 में उन्होंने अपने आर. के. स्टूडियो की स्थापना की और 1951 में 'आवारा' में रूमानी नायक के रूप में ख्याति पाई। राज कपूर ने 'बरसात' (1949), 'श्री 420' (1955), 'जागते रहो' (1956) व 'मेरा नाम जोकर' (1970) जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन व लेखन किया और उनमें अभिनय भी किया। इसके साथ ही उन्होंने मेरा नाम जोकर, आवारा और राम तेरी गंगा मैली जैसी शानदार फिल्मों का निर्माण किया जिन्हे लोग आज भी देखना नहीं भूलते।
उनकी फिल्मों के गाने उस दौर में सबसे लोकप्रिय हुआ करते थे जैसे की, 'मेरा जूता है जापानी', 'आवारा हूँ' और 'ए भाई ज़रा देख के चलो', जीना यहाँ मरना यहाँ, इक दिन बिक जायेगा, माटी के मोल आदि। राज कपूर को 9 बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार, पद्म भूषण और दादा साहब फाल्के जैसे पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चूका है।
ऋषिकेश मुखर्जी का जन्म 30 सितंबर 1922 को कोलकाता में हुआ था। और उन्हें हिंदी सिनेमा के एक अति लोकप्रिय निर्देशक के रूप में पहचाना जाता है क्यूंकि उनकी कला की सुन्दरता उनकी सादगी में छुपी है। ऋषिकेश दा एक ऐसे फ़िल्मकार थे जो बेहद मामूली विषयों पर संजीदा से फिल्में बनाने के बावजूद उनके मनोरंजन के पक्ष को कभी अनदेखा नहीं किया। उनकी कला में किसी भी प्रकार का ग्लैमर नहीं होता था। उन्होंने 1951 में फ़िल्म “दो बीघा ज़मीन” में निर्माता बिमल रॉय के सम्पादक के रूप में अपनी फ़िल्मी करियर शुरू किया। फिर 1957 में 'मुसाफिर' फ़िल्म से निर्देशन करना शुरू किया और अनुराधा, अनुपमा, आशीर्वाद, सत्यकाम, आनंद, गोलमाल, अभिमान, सत्यकाम, चुपके चुपके और नमक हराम जैसी फ़िल्मों का भी शानदार निर्देशन किया। उनकी प्रसिद्ध फिल्मों में 'आनन्द' और 'गोलमाल' सबसे उल्लेखनीय है।
1961 में ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म “अनुराधा” को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके बाद 1972 में उनकी फ़िल्म “आनंद” को सर्वश्रेष्ठ कहानी के फ़िल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें और उनकी फ़िल्म को तीन बार फ़िल्मफेयर बेस्ट एडिटिंग अवार्ड से सम्मानित किया गया जिसमें 1956 की फ़िल्म “नौकरी”, 1959 की “मधुमती” और 1972 की आनंद शामिल है। उन्हें 1999 में भारतीय सिनेमा के सब बड़े सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया। और अंत में साल 2001 में भारत सरकार ने उन्हें “पद्म विभूषण” से सम्मानित किया।
श्याम बेनेगल का जन्म 14 दिसम्बर 1934 को हैदराबाद में हुआ था। श्याम जी को मुख्यधारा से अलग फ़िल्में बनाने के लिए जाना जाता है। उन्होंने अपनी फिल्मों के द्वारा फिल्म निर्माण के एक नये विधा का अविष्कार किया जिसे समानान्तर सिनेमा (Parallel cinema) कहा जाता है। उन्होंने 900 से ज्यादा विज्ञापन फ़िल्में और 11 कॉरपोरेट फ़िल्में बनाई थीं और उसके बाद 1973 में पहली हिंदी फिल्म 'अंकुर' बनाई। इसके बाद 1975 में निशांत और मंथन, 1977 में भूमिका, 1979 में जुनून, 1980 में कलयुग, 1983 में मंडी, 1985 में त्रिकाल जैसी शानदार फिल्में बनाई। और इसी के साथ साल 2001 तक वह लगातार फ़िल्मी दुनिया में सक्रीय रहे। इसके साथ ही उन्होंने जवाहरलाल नेहरू और सत्यजित रे पर डाक्यूमेंट्री फिल्म भी बनाई थी। और 1980 के दशक के मध्य में दूरदर्शन के लिए कई टीवी प्रोग्राम जैसे कि, यात्रा, कथा, सागर और भारत एक खोज जैसे कार्यक्रमों को भी बनाया।
नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल जैसे बेहतरीन कलाकार श्याम बेनेगल की ही दें है। हिंदी सिनेमा में बेहतरीन योगदान देने के लिए श्याम उनको भारत सरकार ने 1976 में पद्मश्री, 1991 में पद्मभूषण, पांच बार नेशनल फिल्म अवार्ड और 2007 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। और लंदन स्थित 'साउथ एशियन सिनेमा फाउंडेशन' (एसएसीएफ) द्वारा 9 जून 2012 को ‘एक्सीलेंस इन सिनेमा अवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया।
दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित श्याम एक्सीलेंस इन सिनेमा अवॉर्ड पाने वाले छठे भारतीय हैं। गौरतलब है कि इससे पहले ये सम्मान एम.एस. शेट्टी (2004), अदूर गोपालकृष्णन (2006), सईद अख्तर मिर्जा (2009), ऑस्कर विजेता गीतकार गुलज़ार (2010) को मिल चुका है।
शक्ति सामंत का जन्म 13 जनवरी, 1926 को बंगाल के बर्धमान नगर में हुआ था और उन्हें हिंदी सिनेमा का एक विख्यात फ़िल्मकार माना जाता है उन्होंने हावड़ा ब्रिज, अमर प्रेम, आराधना, कटी पतंग, कश्मीर की कली, अमानुष जैसी यादगार फ़िल्में बनाईं। वो शुरू से अभिनय करना चाहते थे और फिल्मों में छोटे मोठे रोल कर वो अपनी यह तमन्ना पूरी कर लेते थे। उन्होंने निर्माता और निर्देशक के रुप में दर्जनों से ज्यादा फिल्मों का निर्माण किया। उनकी मुख्य और प्रसिद्द फिल्मों में हावड़ा ब्रिज, अमर प्रेम, आराधना, कटी पतंग, कश्मीर की कली, अमानुष जैसी यादगार फ़िल्में हैं। उन्होंने 1955 से लेकर साल 2003 तक करीब 20 से ज्यादा फिल्मों का निर्माण किया। फिल्म आराधना, अमानुष और अनुराग के लिए उनको तीन बार सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म बनाने के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला।
बासु चटर्जी का जन्म 10 जनवरी 1927 को अजमेर राजस्थान में हुआ था और उन्होंने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में लेखक और निर्देशक के रूप में उत्कृष्ट काम किया। उनकी फिल्में लाइट मूड और मिडिल क्लास से जुड़ी पारिवारिक कहानियों पर आधारित होती थी। अपनी फिल्मों के जरिये वो शादी और प्रेम संबंधो पर अधिक प्रकाश डालते थे और सामाजिक और नैतिक मुद्दों पर भी बड़ी ही बेबाकी से फिल्में बनाते थे। उन्होंने 1970 और 80 के दशक में हिंदी सिनेमा को कई ऐसी शानदार फिल्में दी जिन्होंने फिल्म इंडस्ट्री का नए रूप में विस्तार किया। उन्होंने 1969 में फिल्म 'सारा आकाश' से सिनेमा की दुनिया में कदम रखा और इस फिल्म के लिए उन्हें बेस्ट स्क्रीनप्ले का फिल्मफेयर अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया था। इसके बाद उन्होंने दर्जनों फिल्मों का निर्देशन किया जैसे कि, पिया का घर, उस पार, चितचोर, स्वामी, खट्टा मीठा, प्रियतमा, चक्रव्यूह, जीना यहां, बातों बातों में, अपने प्यारे, शौकीन और सफेद झूठ आदि फिल्में है। साल 1974 में आई फिल्म 'रजनीगंधा' बासु चटर्जी की हिट फिल्मों में शामिल है। फिल्म में लीड रोल में ऐक्टर अमोल पालेकर और विद्या सिन्हा नजर आए थे।
फिल्मों के अलावा उन्होंने 80 के दशक में कई टीवी सीरियल भी बनाये। बंगला उपन्यास पर आधारित सबसे प्रसिद्ध टीवी सीरियल 'ब्योमकेश बख्शी' था जो 1993 में आया था और इसमें अभिनेता रजित कपूर ने ब्योमकेश का किरदार निभाया था। उस दौर में इस सीरियल को लोगों ने बहुत पसंद किया था और आज भी इस सीरियल की लोकप्रियता कम नहीं है। इस सीरियल के दो सीजन भी रिलीज़ हुए थे एक 1993 में दूसरा 1997 में। इसके अलावा टीवी पर बासु चटर्जी ने कई और लोकप्रिय सीरियल्स भी बनाये थे, जैसे 'दर्पण ' और 'कक्का जी कहिन'। दर्पण में उन्होंने विदेशी कहानियों को देसी अंदाज़ में दिखाया था तो 'कक्का जी कहिन' में ओम पुरी को लेकर भारत का पहला कॉमेडी वाला नेताओं पर व्यंगात्मक (sarcastic) शो बनाया।
ऋत्विक घटक का जन्म 4 नवम्बर, 1925 को तत्कालीन पूर्वी बंगाल के ढाका में हुआ था। उसके बाद उनका परिवार कोलकाता आ गया और यही वह काल था जब कोलकाता शरणार्थियों का शरणस्थली बना हुआ था। 1943 में बंगाल का अकाल, 1947 में बंगाल का विभाजन और 1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध, इन सभी घटनाक्रमों ने उनके जीवन को काफी प्रभावित किया। और इसी कारण उनकी फिल्मों में सांस्कृतिक विच्छेदन (cultural dissection) और देशान्तरण बखूबी दिखता है। भारतीय फिल्मकारों के बीच ऋत्विक घटक का स्थान समकालीन बंगला निर्देशकों सत्यजीत रे और मृणाल सेन के समान माना जाता है। उनके सिनेमा को सामाजिक हकीकत पसन्दी और सादगी के लिए याद किया जाता है। देखा जाए तो तीनो ही फिल्मकारों के सिद्धांत और काम करने के तरीके अलग थे लेकिन तीनों ने कमर्शियल सिनेमा में समानान्तर सिनेमा (Parallel cinema) की एक अलग राह बनाई।
ऋत्विक ने बतौर निर्देशक, स्क्रिप्ट राइटर, शॉर्ट फिल्म, डाक्यूमेंट्री और एक अभिनेता के रूप में कई फिल्मों का निर्माण किया और साथ ही अभिनय में भी सक्रीय रहे। नागोरिक (नागरिक) 1952, मुसाफिर 1957, स्वरलिपि 1960, दी लाइफ ऑफ़ दी आदिवासिज़ 1955, दुर्बार गाटी पद्मा (अशांत पद्म) 1971, सुबर्णरिखा 1962 आदि जैसी अन्य दर्जनों फिल्मों का निर्माण किया। हिंदी सिनेमा में अपने शानदार योगदान के लिए भारत सरकार ने उनको पद्म श्री, राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से भी सम्मानित किया।
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