सोशल कंडीशनिंग के कारण हमारे समाज में रहने वाले लोगों का अक्सर महिलाओं के प्रति पक्षपाती नजरिया रहता है। महिलाओं के संघर्षों की ओर अंधा होने से लेकर उनकी जरूरतों के प्रति बहरा होने तक, लिंगवाद (Sexism) और पितृसत्ता (Patriarchy) अक्सर लोगों के फैसले को प्रभावित करती है। भारत में हर मिनट महिलाओं के खिलाफ अपराध होते हैं। महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं, चाहे वह अपने घरों में हों, सार्वजनिक स्थानों पर हों या कार्यस्थल पर हों। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या को देखते हुए, यह उचित है कि महिलाएं उन कानूनों के बारे में जागरूक हों जो उनकी सुरक्षा के लिए मौजूद हैं।
आइये महिलाओं के 10 कानूनी अधिकारों (Women's Rights in India) को जानें, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि देश की बेटियां सशक्तिकरण, प्रोत्साहन और सही सूचना के साथ आगे बढ़ें।
देश में मीटू आंदोलन (Me Too movement) ने साबित कर दिया कि क्यूबिकल से लेकर कक्षाओं तक उत्पीड़न और शोषण मौजूद है। देश भर में कामकाजी महिलाएं आए दिन महिला उत्पीड़न का सामना करती हैं। इसलिए, उनके लिए यह जानना महत्वपूर्ण है कि वे कार्यस्थल पर महिलाओं के कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (निवारण, निषेध एवं निदान) अधिनियम, 2013 के तहत सुरक्षित हैं। यह अधिनियम महिलाओं को कार्यस्थल पर उत्पीड़न से बचाता है और यौन उत्पीड़न की शिकायतों और अन्य मामलों से भी संबंधित है।
भारत में महिलाओं द्वारा उत्पीड़न में सबसे अधिक मामले घरेलू हिंसा के रहते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा महिलाओं के खिलाफ दर्ज किए गए 4.05 लाख मामलों में से 1.26 लाख घरेलू हिंसा के मामले थे। जीवन के सभी क्षेत्रों की महिलाओं को घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है। उन्हें पता होना चाहिए कि वे घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005. Protection of Women from Domestic Violence Act 2005 के तहत संरक्षित हैं। माता-पिता, भाइयों, पति या लिव-इन पार्टनर द्वारा पीड़ित की गयीं महिलाओं को इस अधिनियम के तहत संरक्षित किया जाता है।
उन महिलाओं की पहचान की रक्षा करने के लिए महत्वपूर्ण है जो जीवित हैं या उत्पीड़न या यौन हमले की शिकार हैं, यह अधिकार उन्हें एक विचाराधीन मामले में जिला मजिस्ट्रेट के समक्ष गुमनाम रूप से अपना बयान दर्ज करने की भी अनुमति देता है। नाम न छापने का अधिकार भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा- 228 (ए) के तहत आता है।
गर्भवती महिलाओं के लिए मैटरनिटी लाभों को किसी एक विशेषाधिकार के रूप में नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि वे मैटरनिटी लाभ अधिनियम, 1961 के तहत आते हैं। अधिनियम प्रत्येक वर्किंग महिला को अपने और अपने बच्चे की देखभाल के लिए काम से फूल पेड लीव का अधिकार देता है। कोई भी संगठन जिसमें 10 से अधिक कर्मचारी हैं, इस अधिनियम का पालन करने के लिए बाध्य है।
भारतीय नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा-46 के अनुसार, किसी भी महिला को सुबह 6 बजे से पहले और शाम 6 बजे के बाद गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है, भले ही पुलिस के पास गिरफ्तारी वारंट हो। इतना ही नहीं, एक महिला को पूछताछ के लिए थाने जाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की धारा 160 के तहत महिलाएं यह मांग कर सकती हैं कि किसी कांस्टेबल, परिवार के सदस्यों या दोस्तों की मौजूदगी में उनके पर पूछताछ की जाए।
यह कानून सैलरी या रेम्यूनरेशन के मामले में होने वाले भेदभाव को रोकता है। यह पुरुष और महिला श्रमिकों को समान मुआवजे मिलने पर आवाज़ बुलंद करता है। महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए इन कानूनों को जानना आवश्यक है। अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने पर ही आप अपने साथ घर, कार्यस्थल या समाज में होने वाले किसी भी अन्याय के खिलाफ लड़ सकते हैं।
इंटरनेशनल रिसर्च सेंटर फॉर वीमेन के अनुसार, लगभग 47 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 साल की उम्र से पहले कर दी जाती है। वर्तमान में, भारत बाल विवाह के मामले में दुनिया में 13 वें स्थान पर है। चूंकि बाल विवाह सदियों से भारतीय संस्कृति और परंपरा में डूबा हुआ है, इसलिए इसे समाप्त करना कठिन रहा है। बाल विवाह निषेध अधिनियम को 2007 में प्रभावी बनाया गया था। इस कानून के अनुसार दुल्हन की उम्र 18 वर्ष से कम हो या लड़के की उम्र 21 वर्ष से कम हो। कम उम्र की लड़कियों से शादी करने की कोशिश करने वाले माता-पिता इस कानून के तहत कार्रवाई के अधीन हैं।
इस अधिनियम के अनुसार विवाह के समय वर या वधू और उनके परिवार को दहेज लेना या देना दंडनीय है। दूल्हे और उसके परिवार द्वारा अक्सर दुल्हन और उसके परिवार से दहेज मांगा जाता है। इस प्रणाली ने मजबूत जड़ें जमा ली हैं क्योंकि शादी के बाद महिलाएं अपने जीवनसाथी और ससुराल वालों के साथ चली जाती हैं। जब शादी के बाद भी दहेज की मांग लड़की के परिवारों द्वारा पूरी नहीं की जाती है, तो कई महिलाओं को प्रताड़ित किया जाता है, पीटा जाता है और यहां तक कि जला दिया जाता है।
भारत में महिलाओं को फ्री लीगल एड का अधिकार है और इसके लिए किसी महिला की आमदनी कितनी है या फिर मामला कितना बड़ा या छोटा है, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है। महिलाएं किसी भी तरह के मामले के लिए फ्री लीगल एड की मांग कर सकती हैं। हमारे देश में महिलाओं, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, मानव तस्करी से पीड़ित व्यक्ति, स्वतंत्रता सेनानी, प्राकृतिक आपदा से पीड़ित व्यक्ति और 18 साल से कम उम्र के बच्चों को भी फ्री लीगल एड का अधिकार है। सामान्य श्रेणी के लोगों के लिए इन्कम का दायरा रखा गया है। हाईकोर्ट के मामलों में जहां उनकी सालाना इन्कम 30 हज़ार रुपए से कम होनी चाहिए, वहीं सुप्रीम कोर्ट के मामलों में वह 50 हज़ार से कम हो.
भारत में महिलाओं को मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेन्सी एक्ट, 1971 कुछ शर्तों पर मेडिकल डॉक्टरों (विशिष्ट स्पेशलाइजेशन वाले) द्वारा अबॉर्शन कराने की अनुमति देता है। अबॉर्शन अधिकारों को तीन कैटेगरी में बांटा गया है। जहां प्रेग्नेंसी के 0 हफ्ते से 20 हफ्ते के बीच अबॉर्शन कराने के लिए कुछ कंडीशन दी गई हैं। अगर कोई महिला मां बनने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं है, या फिर कॉन्ट्रासेप्टिव मेथड या डिवाइस फेल हो जाने के कारण न चहते हुए भी महिला प्रेग्नेंट हो गई है, तो वह अपना अबॉर्शन करा सकती है।
इसके साथ ही अगर सोनोग्राफी की रिपोर्ट में यह बात सामने आए कि भ्रूण में किसी तरह की शारीरिक या मानसिक विकलांगता हो सकती है, तो भी महिला को एबॉर्शन कराने का हक़ है।
अब तक हमारे देश में विवाहित महिलाओं को ही एबॉर्शन का हक़ था, पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कुछ मामलों में अविवाहित लड़कियों को भी यह अधिकार मिल गया है।
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