भारत आज कारगिल युद्ध (Kargil War) जीत की 23वीं वर्षगांठ मना रहा है। देश आज अपने उन वीर शहीदों को याद कर रहा है जिन्होंने पाकिस्तानी घुसपैठियों से हमारी सीमाओं की रक्षा के लिए अपने को देश की मिट्टी के हवाले कर दिया।
युद्ध के दौरान भारतीय सशस्त्र बलों के 527 सैनिकों ने अपनी जान गंवाई। सैनिकों ने देश के लिए बहादुरी से लड़ाई लड़ी, और कारगिल विजय दिवस (Kargil Vijay Diwas) न केवल भारत की जीत की कहानी बयान करता है, बल्कि उन शहीद नायकों को भी श्रद्धांजलि देता है जिन्होंने 'ऑपरेशन विजय' (Operation Vijay) को सफल बनाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।
देश के गौरव की रक्षा करने वाले जांबाज़ सैनिकों को जिस भी माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित की जा सकती हो, शब्दों से तो बहरहाल नहीं की जा सकती। आईये इस दिन, लखनऊ के भारतीय सेना के उन नायकों को याद करें जिन्होंने 1999 में अपनी जान गंवाई लेकिन पाकिस्तान पर भारत की जीत हासिल करके रहे।
राइफलमैन सुनील जंग महत का जन्म 13 नवंबर,1979 को हुआ था। महंत बचपन से ही देश पर मर मिटने का जज़्बा रखते थे और भारतीय सेना में एक सिपाही के तौर पर भर्ती होने का सपना देखते थे। अपने पिता जो स्वयं भारतीय सेना में थे,उनके पदचिन्हों पर चलते हुए महंत का चुनाव स्कूल ख़त्म होने के बाद सेना में हो गया। वे 9 साल के थे जब स्वतंत्रता दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में भारतीय सेना की वर्दी पहनने की ज़िद कर रहे थे और उन्हें यकीन था की वे एक दिन देश की मिटटी की रक्षा करने का स्वर्णिम अवसर अपने नाम कर सकेंगे।
19 वर्षीय सुनील कारगिल युद्ध में शहीद हो गए और उनकी माँ कारगिल युध्द्ग पर जाने के पहले उनके आखरी शब्दों को याद करते हुए कहती हैं "कतरा कतरा खून का बहा दूंगा देश के लिए।"
मेजर रीतेश उन जांबाज सिपाहियों में शामिल हैं, जिन्होंने कारगिल में विजय के बाद साथी जवानों की वीरता की कहानियां लोगों को सुनाईं। खुद अदम्य साहस का परिचय देते हुए कारगिल में दुश्मनों को खदेड़ा और जीत के नायक बने। लामार्टीनियर कॉलेज के छात्र रहे मेजर रीतेश शर्मा 9 दिसंबर, 1995 को सेना में भर्ती हुए। इसी दौरान कारगिल युद्ध की सूचना मिली कि जवानों की पेट्रोलिंग टुकड़ी की कोई जानकारी नहीं मिली।
इससे पहले कि रेजीमेंट उन्हें बुलाती, वह बगैर बुलाए ही ड्यूटी पर पहुंच गए। चूंकि, जाट रेजीमेंट पहले ही कारगिल की ओर कूच कर चुकी थी, इसलिए मेजर रीतेश ने यूनिट के साथ दुश्मनों से मोर्चा लेते हुए चोटी पर तिरंगा फहरा दिया था। इसी क्रम में दो और चोटियों पर भी फतह हासिल की। पर, मश्कोह घाटी जीतते हुए वह घायल हो गए। मश्कोह घाटी (Mushkoh Valley) में तिरंगा फहराने के कारण ही 17 जाट रेजीमेंट को मश्कोह सेवियर का खिताब भी दिया गया।
कहावत है कि ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’
ये कहावत भी मनोज पांडेय पर बखूबी चरितार्थ होती है जब सेना के लिए वो इंटरव्यू देने गए थे तब इंटरव्यू में उनसे सवाल किया गया, क्या आप ऑर्मी ज्वाइन करना चाहते हैं ? इसके जवाब में उन्होंने कहा था- उन्हें ‘परमवीर चक्र’ चाहिए। लेफ्टिनेंट पांडे गोरखा राइफल्स के एक अधिकारी थे और उन्हें 1999 में परम वीर चक्र (मरणोपरांत) से सम्मानित किया गया था। लेफ्टिनेंट पांडे ऑपरेशन विजय के दौरान हमलों की एक श्रृंखला का हिस्सा थे और उन्होंने पाकिस्तानी घुसपैठियों को वापस लौटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कारगिल के बटालिक सेक्टर में जुबर टॉप, खालूबर हिल्स पर हमले के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। मनोज पांडेय ने जो शब्द अपने इंटरव्यू में कहे थे वो शब्द बिलकुल सही साबित हुए। उनकी वीरता के लिए उन्हें आज भी 'बटालियन के नायक' के रूप में याद किया जाता है।
कारगिल में दुश्मनों के दांत खट्टे करने वाले शहीद लांसनायक केवलानंद द्विवेदी ऐसे नायक हैं, जो अपनी बीमार पत्नी को छोड़कर रणभूमि में गए थे। खास बात यह है कि उनकी बीमार पत्नी ने उनका हौसला बढ़ाते हुए कहा था कि सरहदों को आपकी ज्यादा जरूरत है। वह मां है। मां की सुरक्षा पहले। देशसेवा पहले। पर, उन्हें क्या पता था कि वह खुद नहीं आएंगे, युद्धभूमि से उनकी शहादत की खबर आएगी। लांसनायक कारगिल सेक्टर में दुश्मनों के छक्के छुड़ाते हुए आगे बढ़ रहे थे कि ऊंचाई पर बैठे दुश्मन की एक गोली उनके सीने में धंस गई। पर, उनके कदम नहीं रुके। अंतिम सांस तक उन्होंने दुश्मनों का सामना किया और शहीद हो गए।
कारगिल युद्ध में देश की रक्षा करते हुए हमने अपने कई वीर जवानो को खोया जिन्होंने हंसते हंसते अपने प्राण न्योछावर कर दिया। भारत माता के इन वीर सपूतों को आज पूरा देश नमन कर रहा है। और इनका बलिदान हमें निरन्तर प्रेरित करेगा।
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