लखनऊ के कैसरबाग क्षेत्र में नवाब वाजिद अली शाह की सबसे आकर्षक संरचनाओं में से एक परी खाना (Pari Khana), इमारत है, जिसमें अवध के नवाबों की सेवा में कई दरबारी रहते थे। अपने समय में यह बहुत विशाल संगीत का घर रहा होगा और दिलचस्प बात यह है कि संगीत के सुर यहाँ अभी भी गूंजते हैं क्योंकि यहीं भातखंडे संगीत संस्थान डीम्ड विश्वविद्यालय (Bhatkhande Music Institute Deemed University) स्थापित है। आईये जानते हैं कहानी लखनऊ के सांस्कृतिक गौरव और शास्त्रीय प्रदर्शन कलाओं के लिए भारत के सबसे सम्मानित प्रतिष्ठानों में से एक भातखण्डे संस्थान और इसके निर्माता विष्णु नारायण भातखंडे (Vishnu Narayan Bhatkhande) की जिन्हे संगीत को भाषा देने का श्रेय दिया जाता है।
जीवन में आपको ये जरूर बताया गया होगा कि आप जिस किस्म का भी हिंदुस्तानी संगीत सुनते हैं उसका आधार शास्त्रीय संगीत ही है।
आप गजल सुनें, भजन सुनें, ठुमरी सुनें इन सभी की जड़ में शास्त्रीय संगीत है। यहां तक कि कई लाजवाब सदाबहार हिंदी फिल्मी गाने भी शास्त्रीय रागों पर आधारित हैं। अब जरा सोचिए कि इन रागों को सीखा कैसे जाता होगा ?
वर्षों पहले एक वक्त था जब श्रुति परंपरा में चीजें सीखी जाती थीं। यानी अपने गुरु से आपने कुछ सुना और उसे सुनकर सीखा।
जरा सोचिए कि आज के जमाने के कलाकार अगर श्रुति परंपरा में संगीत सीखना चाहते तो क्या ये संभव था? शायद बिल्कुल नहीं। आज कलाकार या कोई आम आदमी भी इसलिए संगीत सीख सकता है क्योंकि संगीत की एक भाषा है। उसे लिपिबद्ध किया गया है। आपको राग यमन जानना है तो आप पढ़ सकते हैं कि राग यमन क्या होता है? हम उन्ही महान कलाकार और संगीत के जानकार की बात कर रहे हैं जिन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत को लिपिबद्ध करने का श्रेय दिया जाता है। वो महान शख्सियत थे पंडित विष्णु नारायण भातखंडे (Pandit Vishnu Narayan Bhatkhande)। उन्होंने इस तथ्य पर विचार किया शुरू किया कि हिंदुस्तानी संगीत में शिक्षण का एक संरचित पाठ्यक्रम नहीं था और यह काफी हद तक एक मौखिक परंपरा थी।
भातखंडे जी ने पूरे उत्तर भारत में दूर दूर तक यात्रा की और विभिन्न घरानों में जिस तरह से संगीत सिखाया जाता था, इस बारे में जानकारी अर्जित की। फिर वे दक्षिण चले गए, 1904 में मद्रास आ गए। वह वे एक स्थानीय संगीत के पारखी थिरुमलय्या नायडू के साथ संपर्क में आये। कॉस्मोपॉलिटन क्लब में नायडू से मिलने के बाद, उन्होंने बैंगलोर के जॉर्ज टाउन के रामास्वामी स्ट्रीट पर एक सभा में नागरत्नम्मा के एक संगीत कार्यक्रम को सुना। इसके बाद दक्षिण में अन्य बड़े नामों के साथ उनकी बातचीत का उन पर अधिक प्रभाव पड़ा। हालाँकि उनका यह मानना था की वे जितने भी संगीतकारों से मिले, वे महान थे लेकिन वे उन्हें यह समझाने में असमर्थ थे कि उन्होंने संगीत का कैसे अभ्यास किया।
पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ने फिर पांडुलिपियों का अध्ययन करके हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में थाट को ‘इन्ट्रोड्यूस’ किया। उन्होंने तमाम शास्त्रीय रागों को 10 थाटों में बांट दिया। जो बहुत ही वैज्ञानिक तरीका था। मंद्र सप्तक और मध्य सप्तक के स्वरों के साथ में लगने वाले निशान भी पंडित विष्णुनारायण भातखंडे की ही देन है। कोमल और तीव्र स्वरों के साथ में लगने वाले निशान भी उन्हीं की देन हैं।
उन्होंने हिंदुस्तानी संगीत पर व्यापक रूप से लिखा और उनकी चार खंडों वाली हिंदुस्तानी संगीत पद्धति आज भी शास्त्रीय संगीत की उत्तर भारतीय शैली का मानक पाठ है। भातखंडे ने अखिल भारतीय संगीत सम्मेलनों का आयोजन भी शुरू किया, जो हिंदुस्तानी संगीत पर केंद्रित था।
विष्णु नारायण भातखण्डे के संगीत के सफर में उनका अवध के एक प्रमुख तालुकदार राय उमानाथ बाली ने बहुत समर्थन किया। यह उनकी इच्छा थी कि लखनऊ में हिंदुस्तानी संगीत के लिए एक कॉलेज की स्थापना की जाए, जबकि भातखंडे के विचार में उन्होंने इस कॉलेज के लिए दिल्ली को प्राथमिकता दी। दोनों ने लगभग एक दशक तक इस विषय पर काम किया और बाद में अंततः 1922 में जीत हासिल कर ली। चौथा अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन 1924 में लखनऊ में आयोजित किया गया था और शहर में एक संगीत महाविद्यालय की स्थापना के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया था। 1926 में भातखंडे जी द्वारा तैयार किए गए पाठ्यक्रम के साथ यह कॉलेज वास्तविकता में तब्दील हो गया।
संयुक्त प्रांत के तत्कालीन गवर्नर सर विलियम सिंक्लेयर मैरिस (Sir William Sinclair Marris) द्वारा परी खाना में ऑल इंडिया कॉलेज ऑफ हिंदुस्तानी म्यूजिक का उद्घाटन किया गया था। छह महीने बाद, कॉलेज का नाम भातखण्डे विश्वविद्यालय रखा गया। जो आज भी संगीत के क्षेत्र में देश के अग्रणी संस्थानों में से एक है। 19 सितंबर 1936 को पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ने अंतिम सांस ली।
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