लखनऊ, एक ऐसा शहर है जो सदियों से एक वास्तुशिल्प चमत्कार रहा है, हम आपको बता दें की यहाँ कुछ सबसे राजसी और भव्य कोठियां मौजूद हैं। लखनऊ आज भी इन वास्तुशिल्प रत्नों की तारीफ़ और विस्तृत उल्लेख का आनंद ले रहा है। ये कोठियां लखनऊ के लंबे समय से चले आ रहे, समृद्ध सांस्कृतिक और स्थापत्य इतिहास का हिस्सा रही हैं और अभी भी लोग इनके भव्य डिजाइनों से आकर्षित रहते हैं। कोठियां अपनी स्ट्रेटेजिक डिजाइनों, कलात्मक नक्काशी जैसे पहलुओं के कारण प्रसिद्द हैं।
आइए हम समय के पन्नो को पलटते हैं और देखते हैं की किस प्रकार इन शानदार कोठियों ने लखनऊ के सांस्कृतिक और सियासी इतिहास में योगदान दिया।
अपने नाम के ही स्वरुप 'तारे वाली कोठी' को एक शाही वेधशाला के उद्देश्य से बनाया गया था और यह अब तक शहर में एक वास्तुशिल्प सितारे की ही तरह चमक रही है। 1831 में नवाब नसीर-उद-दीन हैदर के द्वारा इस शाही वेधशाला की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया था क्योंकि नवाब का मानना था कि यह न केवल अंतरिक्ष संबंधी अवलोकन (Space observation) में मदद करेगी बल्कि इससे युवा दरबारियों को एक स्कूल के रूप में खगोल विज्ञान और सामान्य भौतिकी के कुछ ज्ञान को पढ़ाया भी जा सकता है।
रॉयल वेधशाला की योजना इंग्लैंड के ग्रीनविच वेधशाला के समान ही बनाई गई थी। इस वेधशाला को इंग्लैंड (England) के ग्रीनविच वेधशाला (Greenwich Observatory) के स्वरूप पर डिज़ाइन किया गया था और वहीं के समान उपकरण भी रखे गए थे। जिनमें चार टेलिस्कोप (Telescope) के अलावा बैरोमीटर (Barometers), मैग्नेटोमीटर (Magnetometers), लॉस्टस्टोन (Lodestones), थर्मामीटर (Thermometers) और स्टैटिक इलेक्ट्रिसिटी गैल्वनिक डिवाइस (Static Electricity Galvanic Devices) थे। निर्माण 1832 में शुरू हुआ था, लेकिन दुर्भाग्य से, 1837 में नवाब नसीर-उद-दीन हैदर के निधन के कारण वे रॉयल वेधशाला का निर्माण अपने सामने नहीं देख सके। तारे वाली कोठी का निर्माण वर्ष 1841 के अंत तक कुल रु. 19 लाख में पूरा हुआ।
इस कोठी ने 1857-1858 के स्वतंत्रता संग्राम में भी भूमिका निभाई है, इसने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में जनता के प्रमुख नेताओं में से एक मौलवी अहमद-उल्ला शाह को अस्थायी सभा आयोजित करने में मदद की थी। वर्तमान समय में भारतीय स्टेट बैंक द्वारा अपने प्रधान कार्यालय के हिस्से के रूप में उपयोग की जा रही है।
लखनऊ की खूबसूरत बिबियापुर कोठी का निर्माण 1775- 1797 के दौरान नवाब आसफ-उद-दौला द्वारा, गोमती के दाहिने किनारे पर, शहर के बाहरी इलाके में किया गया था। यह तीन मंजिला इमारत लखौरी (पुराने समय में निर्माण के लिए इस्तेमाल की जाने वाली ईंट का प्रकार) से बनी एक दो मंजिला संरचना है जिसे चूने और मोर्टार के साथ बनाया गया था। बिबियापुर कोठी ब्रिटिश सरकार के महत्वपूर्ण मित्रों और मेहमानों के लिए एक मनोरंजन घर के रूप में कार्य करती थी। कोठी बिबियापुर के आंतरिक भाग को सजाने के लिए फ्रांसीसी हल्की नीली टाइलें विशेष रूप से फ्रांस से लाई गईं थीं, जो यहाँ के विशाल हॉल की दीवारों पर अलंकृत हैं।
कोठी के अंदर बनी सर्पीन लकड़ी की सीढ़ियाँ भारत में अपनी तरह की पहली मानी जाती हैं। कोठी एक शिकार स्थल के रूप में भी काम करती थी, और यहीं नवाब सआदत अली खान को ताज पहनाया गया था। इमारत वर्तमान में सैन्य डायरी की है और ASI के संरक्षण में है।
आज जो इमारत राज भवन के रूप में शहर के मध्य में सुशोभित है उसका निर्माण 200 वर्ष पहले हुआ था। अवध के तत्कालीन नवाब, नवाब सआदत अली खान, यूरोपीय वास्तुकला से बहुत अधिक मोहित थे। यूरोपीय शैली में भवनों का निर्माण कराने की ज़िम्मेदारी उन्होंने मेजर जनरल क्लाउड मार्टिन को दी और कोठी हयात बख्श लखनऊ में उनके द्वारा निर्मित भव्य संरचनाओं में से एक है। हालांकि इतने शान ओ शौक़त से बनवायी इस कोठी हयात बक्श को खुद नवाब सआदत अली खान इस्तेमाल नहीं कर पाए, बल्कि यह शानदार कोठी मेजर जनरल क्लाउड मार्टिन का निवास स्थान बन गयी, जिन्होंने सुरक्षा के लिए वहां अपना शस्त्रागार रखा था।
सन 1830 में बादशाह नसरुद्दीन हैदर के शासन में कर्नल रोबर्ट्स ने इस कोठी में निवास किया। 1857 की ग़दर के दौरान सर हेनरी लॉरेंस का भी यहाँ काफी आना-जाना था। इसके बाद जब कर्नल इंग्लिश सेना के कमांडर बने, तब उनके यहाँ रहने की वजह से यह कोठी छावनी क्षेत्र में आने लगी। मेजर जॉनशोर बैंक के अवध के मुख्य आयुक्त बनने के साथ इस कोठी ने उनके निवास का कार्य किया, और साथ ही कोठी को ‘बैंक कोठी’ के नाम से जाना जाने लगा, तथा कोठी के पश्चिमी द्वार से लेकर कैसरबाग़ तक की सड़क को ‘बैंक रोड’ का नाम दिया गया।
आज़ादी से पहले ही कोठी हयात बक्श को संयुक्त प्रांत आगरा और अवध के राज्यपाल का आधिकारिक निवास घोषित कर दिया गया था। उस समय ही राज भवन को उसका अंतिम आकार दिया गया था। आज़ादी से पहले ब्रिटिश राज्यपाल यहाँ रहे और आज़ादी के बाद भारतीय राज्यपाल इसमें निवास करने लगे। आज़ादी के बाद ही इसे ‘राज भवन’ का नाम दिया गया।
यह दो मंज़िली आलीशान कोठी हरियाली से घिरे हुए शहर के पूर्वी हिस्से में बनाई गयी। ‘हयात बक्श’ का अर्थ होता है ‘जीवनदायी’। और क्योंकि ये इमारतें भारतीय वास्तुकला से भिन्न थीं इसलिए इन्हें कोठी कहा जाता था। सिर्फ कोठी के अन्दर का राजदरबार भारतीय वास्तुकला में बनाया गया था, इसके अलावा पूरी कोठी पर पश्चिमी प्रभाव था।
फरहत बख्श, जिसे मूल रूप से मार्टिन विला के रूप में जाना जाता है, का निर्माण 1781 में फ्रांसीसी मेजर क्लाउड मार्टिन (1735-1800) द्वारा किया गया था। मार्टिन की मूल शैली ने यूरोपीय शास्त्रीय और अंग्रेजी नियो- पैलाडियन शैलियों को नवाबी शैली के साथ जोड़ा। कोठी को गोमती नदी के तट पर स्थापित करके, और इमारत के चारों ओर एक खाई का निर्माण करके, कोठी फ़रहत बक्श का निर्माण रक्षा को ध्यान में रखते हुए बड़े ही रणनीतिक तरीके से किया गया था। इस तरीके से इमारत ठंडी भी रहती थी। मार्टिन की मृत्यु के बाद, अवध के नवाब सआदत अली खान (1798-1814) ने इमारत को खरीदा, इसका नाम फरहत बख्श रखा और इसे एक महल में बदलने के लिए कई अतिरिक्त निर्माण किए।
पुराने लखनऊ की कहानिकार के रूप में स्थापित दिलकुशा कोठी, लखनऊ में शानदार ला मार्टिनियर कॉलेज के करीब स्थित है। 1805 में नवाब सादात अली खान (1798-1814) के शासन के तहत निर्मित दिलकुशा कोठी शुरू में अवध के नवाबों के लिए एक निवास स्थान और एक शिकार लॉज था। इसके दक्षिण-पूर्व की ओर दिलकुशा कोठी के करीब बिबियापुर कोठी स्थित है, जिसके बारे में माना जाता है कि नवाबों की महिलाएं यहीं रहती थीं।
विलायती कोठी के रूप में भी लोकप्रिय, दिलकुशा कोठी को स्वतंत्रता के पहले युद्ध के दौरान बड़े प्रभावों और आघातों का सामना करना पड़ा था और इसलिए, यहाँ कुछ टॉवर और दीवारें पूरे रूप में मौजूद नहीं हैं। 1857 के विद्रोह के दौरान यहां जनरल हेनरी हैवलॉक की मृत्यु हो गई थी और अब खंडहरों को देखते हुए, इस स्थल की सौंदर्य भव्यता की कल्पना करना मुश्किल नहीं है। शुरुआत में उपेक्षित, लेकिन अब ASI इस सुंदरता को बहाल करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है।
अपने नाम के समान कोठी में आज भी नूर बरस रहा है। ये भव्य कोठी हजरतगंज में स्थित है, जो वहां के परिदृश्य को और अधिक आकर्षक बनाती है। अधिकतर, यह माना जाता है कि कोठी का निर्माण अवध के छठे नवाब सआदत अली खान ने अपने पोते रफ़ी-उश-शान (मोहम्मद अली शाह के पुत्र, जिन्हें नसीर-उद- दौला के नाम से भी जाना जाता है) के लिए मकतब (स्कूल) के रूप में किया था। यह भी कहा जाता है कि कोठी पर नवाब सआदत अली खान के बेटे सादिक अली खान ने कब्जा कर लिया था।
यह भी कहा जाता है कि जब नवाब मोहम्मद अली शाह ने अपनी संपत्ति को अपनी पत्नियों और बच्चों के बीच बांट दिया और उन्होंने कोठी नूर बख्श अपने बेटे, रफ़ी-उश-शान को दे दिया, जिसके बारे में माना जाता है कि वह वर्ष 1857 तक इसमें रहा था। कोठी नूर बख्श अब जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) का निवास है। कोठी नूर बख़्श के साथ कई ऐसी मान्यताएं जुड़ी हुई हैं लेकिन एक चीज जो इसके साथ स्थिर रही है, वह है इसकी भव्यता, आकर्षण और सुंदरता।
कोठी दर्शन बिलास को अपने तीन सबसे प्रमुख पड़ोसियों के प्रभाव से बनाया गया था जैसे की छतर मंजिल का मध्य भाग और कोठी फरहत बख्श के ताज के बुर्ज दर्शन विलास से समान हैं। दिलकुशा महल जो एक शानदार यूरोपीय घर की प्रतिकृति था, उसके सामने के और बाहरी हिस्से की यूरोपीय डिज़ाइन भी कोठी दर्शन बिलास में देखने को मिलती है। मूसा बाग ने दर्शन बिलास को अपना सामान्य लेआउट और विचार दिया, क्योंकि 'मूसा बाग' (मूसा बाग) स्वयं यूरोपीय और मुगल वास्तुकला का एक मिश्रण था। यह कोठी छोटी छतर मंजिल पैलेस का एक हिस्सा थी, लेकिन केवल यह कोठी लखनऊ के वास्तुशिल्प वंश का हिस्सा बनी हुई है क्योंकि छोटी छतर मंजिल, दुर्भाग्य से अब मौजूद नहीं है।
कोठी दर्शन बिलास का निर्माण कार्य महत्वाकांक्षी नवाब, गाजी उद-दीन हैदर द्वारा शुरू किया गया था, जिनका 1827 में निधन हो गया था। हालांकि, कोठी का निर्माण जल्द ही उनके उत्तराधिकारी नासिर उद-दीन हैदर ने फिर से शुरू किया, जिन्होंने महलनुमा भवन को एक निवास स्थान के रूप में उनकी पत्नी कुदसिया महल के लिए बनवाया। हालाँकि जब नवाब ने बेग़म पर विश्वासघात के लिए शक किया तो निर्दोष बेगम नवाब के कठोर व्यवहार और आरोप को सहन नहीं कर सकीं और आत्महत्या कर ली। 182 साल की उपेक्षा के बाद, कोठी को 2019 में पुनर्निर्मित किया गया।
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