गोदान, गबन, कर्मभूमि, सेवा सदन, शतरंज के खिलाड़ी और ईदगाह जैसे अमर उपन्यास एवं ठाकुर का कुआं, बड़े भाई, पूस की रात जैसी सैकड़ों कहानियों के रचयिता मुंशी प्रेमचंद का लेखन अपने समय से लेकर आज तक प्रासंगिक है और वे हिन्दी साहित्य के अंतरिक्ष के सबसे जगमगाते हुए सितारे माने जाने जाते हैं।
लेकिन क्या आप जानते हैं मुंशी प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी भी एक साहित्यकार थीं जो मुंशी जी के साहित्य रुपी विशाल बरगद की छाया में छिपी हुई लता रह गयीं। मुंशी प्रेमचंद के बारे में सैकड़ों शोध प्रबंध और दर्जों संस्मरण लिखे गए हैं लेकिन वे एक व्यक्ति के रूप में कैसे थे इस बात का विवरण हमें शिवरानी देवी के संस्मरण प्रेमचंद घर में बखूबी मिलता है।
शिवरानी ने अपने लेखन में मुंशी प्रेमचंद के जीवन के उन हिस्सों को बेहद मार्मिक शब्दों में पिरोया है जिनसे दुनिया अनभिज्ञ थी। वास्तव में, शिवरानी देवी वह महिला थीं जिनकी आलोचनात्मक राय और सलाह को प्रेमचंद नियमित रूप से मांगते, सम्मान करते और पालन करते थे।
आईये जानते हैं उस महिला के स्वरुप के बारे में जिसने अपनी स्वतंत्रता और आत्म-पहचान की जमकर रक्षा की और अपने अस्तित्व को प्रेमचंद से इतर एक लेखिका, एक समाज सेविका एवं ब्रिटिश शासन के दौरान एक क्रांतिकारी के रूप में कायम रखा।
शिवरानी और प्रेमचंद का विवाह स्पष्ट रूप से गर्व और बहुत सारे स्नेह के साथ रंगा हुआ था। वे दोनों जीवन के हर पहलु से एक दुसरे के पूरक थे। 1905 की बात है जब प्रेमचंद ने यूपी के जिला फतेहपुर के निवासी मुंशी देवी प्रसाद द्वारा दिए गए एक वैवाहिक विज्ञापन को देखा। ये विज्ञापन मुंशी देवी प्रसाद की बेटी शिवरानी देवी के लिए था जो एक बाल विधवा थीं। प्रेमचंद ने तुरंत विज्ञापन का जवाब दिया और शिवरानी की तस्वीर मांगी, जो उन दिनों एक असामान्य बात थी।
शिवरानी ने "प्रेमचंद घर में" पुस्तक में प्रेमचंद के उनसे विवाह करने के निर्णय को एक साहसी कदम बताते हुए लिखा है "मेरी शादी में आपकी चाची वग़ैरह किसी की राय नहीं थी । मगर यह आपकी दिलेरी थी। आप समाज का बंधन तोड़ना चाहते थे। यहाँ तक कि आपने अपने घरवालों को भी ख़बर नहीं दी। प्रेमचंद की ओर से यह वास्तव में एक साहसिक और असामान्य कदम था, जो संभवतः प्रेमचंद के स्वयं के सुधारवादी सामाजिक विश्वासों से प्रभावित था।
विवाह के बाद प्रेमचंद की सोहबत में साहित्य में उनकी दिलचस्पी विकसित हुई। जब प्रेमचंद अपने लेखन से राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो रहे थे, उसी समय शिवरानी देवी ने भी लिखना शुरू किया था। वे अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थीं, लेकिन अत्यधिक विचारवादी और सशक्त महिला थीं।
प्रेमचंद ने उन्हें आगे बढ़ाया और 1924 में जब शिवरानी देवी की उम्र 35 वर्ष थी, तो उनकी पहली कहानी चांद पत्रिका में साहस शीर्षक से छपी थी। इस पहली कहानी से ही पता चलता है कि शिवरानी देवी बहुत साहसी और बेबाक थीं। तब प्रेमचंद का चर्चित उपन्यास रंगभूमि भी नहीं आया था। बाद में, शिवरानी ने अपने अत्यधिक लोकप्रिय पति का एक पूर्ण संस्मरण लिखा, जो 1944 में प्रगतिशील लेखक के आंदोलन के बीच में प्रकाशित होगा, जो 1936 में लखनऊ में शुरू हुआ था।
इस आंदोलन के दौरान, "साहित्यिक बुद्धिजीवियों ने अपने राजनीतिक संघों और वैचारिक प्रतिबद्धताओं पर दोबारा गौर किया और फिर से काम शुरू किया," इस आंदोलन और इसकी विचारधाराओं ने शिवरानी को भी मुख्य रूप से महिलाओं के प्रति कुछ सामाजिक मुद्दों पर अपने प्रगतिशील रुख को साहसपूर्वक बताने का एक मौका दिया। शिवरानी अपनी कहानियों में उग्र, साहसी और आदर्शवादी थीं, जो समाज में रूढ़िवादिता को सूक्ष्मता से चुनौती देती थीं। उन्होंने नैतिकता, शुद्धता और बलिदान पर जोर दिया।
उन्होंने स्वतंत्र रूप में एक महिला की पहचान को भी फिर से परिभाषित किया, जो अकेले एक सम्मानजनक जीवन जी सकती है। एक स्वतंत्र रूप में एक महिला की पहचान को भी फिर से परिभाषित किया, जो अकेले एक सम्मानजनक जीवन जी सकती है। उन्होंने मजबूत महिला पात्रों की कल्पना की। अपनी कहानी "विधवंश की होली" (विनाश की होली) में, नायक उत्तम भूकंप में सब कुछ खो देने के बावजूद होली का त्योहार मनाती है। उनकी अन्य कहानी आंसू के दो बूँद में भी इस सशक्तिकरण का प्रमाण मिलता है।
उनके नाम को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाली महिलाओं की सूची में एक प्रमुख स्थान नहीं मिला, लेकिन वह 'कप्तान' थीं, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महिला स्वयंसेवकों का नेतृत्व किया और यहां तक कि लखनऊ में विदेशी सामान बेचने वाली दुकानों पर धरना देने के लिए जेल भी गई।
उन्हें 11 नवंबर 1930 को झंडेवाला पार्क, अमीनाबाद में गिरफ्तार किया गया था। शिवरानी हमेशा लोगों के सामाजिक आर्थिक उत्थान में रुचि रखती थी और स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेती थी। स्वतंत्रता गतिविधियों में शिवरानी की सक्रिय भागीदारी ने उन्हें इतना लोकप्रिय बना दिया कि जब कांग्रेस कार्यकर्ता मोहन लाल सक्सेना ने महिला स्वयंसेवकों की सूची बनाई, तो शिवरानी को सर्वसम्मति से उनके 'कप्तान' के रूप में चुना गया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भागीदारी की सबसे दिलचस्प बात यह थी कि मुंशी प्रेमचंद भी इससे अनजान थे।
शिवरानी देवी जैसी लेखिकाओं के साहित्य की छाप जो सामूहिक रूप से हमारी स्मृति में नहीं है, यह साहित्य की विविधता और गैर समावेशी होने पर सवाल उठाता है। जब हम साहित्य को समाज के दर्पण के रूप में बात करते हैं, तो हमें शिवरानी देवी जैसी लेखिकाओं के काम पर गौर करना चाहिए, वे समाज के टूटी, फूटी जंग लगी विचारधारा पर चोट करती हैं और जब हम उन्हें साहित्य में वह स्थान नहीं देते हैं, तो हम अपने समाज के लिए बहुत बड़ा नुकसान कर रहे हैं।
प्रेमचंद की पोती सारा राय बताती हैं कि शिवरानी देवी को तीन गुना विलोप का सामना करना पड़ा, क्योंकि वह एक महिला थीं, दूसरी, वह एक महिला लेखिका थीं, और तीसरी, क्योंकि वह प्रेमचंद की पत्नी थीं। लेकिन, उन्होंने कभी भी अपने पति की छवि को अपनी पहचान पर हावी नहीं होने दिया। कुछ साहित्यकारों जानकारों का मानना है की वे प्रेमचंद से अधिक विचारवादी, अडिग और प्रबल व्यक्तित्व की थीं।
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