सईदा बानो - एक स्वतंत्र एवं बेबाक़ शख़्सियत जो भारत की पहली महिला रेडियो न्यूज़ रीडर बनीं
13 अगस्त, 1947 का दिन है, सुबह के 8 बज रहे हैं और ऑल इंडिया रेडियो के उर्दू न्यूज़ बुलेटिन के श्रोताओं को पहली बार एक महिला की आवाज़ सुनने का सुखद तोहफ़ा मिला है। जिस क्षण सईदा बानो (Saeeda Bano) ने मधुर आवाज़ में अपना परिचय दिया, उसी क्षण उन्होंने भारत के इतिहास में पहली महिला न्यूज़ रीडर के रूप में अपना नाम अमर कर दिया। जब बानो ने अपना पहला समाचार पढ़ा तो वे नहीं जानती थीं की वे स्वतंत्र भारत की महिलाओं को अपनी पंक्तियों के बीच की हिम्मत को पढ़ने और समझने के लिए आमंत्रित कर रही थी और उनसे अपनी कहानी स्वयं लिखने का आग्रह कर रही थीं।
बानो एक ऐसी महिला थीं, जिन्होंने दुनिया को अपनी अदम्य इच्छा के आगे झुकाते हुए, बिना किसी समझौते के और निडर होकर अपना जीवन जिया।
स्वतंत्र भारत की रहबर
उर्दू प्रसारण की अग्रणी, सईदा बानो के अंदर बहादुरी की नीव उनके पिता ने रखी थी, भोपाल में पली-बढ़ी बानो अपनी किशोरावस्था में ही,1925 में लखनऊ के करामत हुसैन मुस्लिम गर्ल्स हाई स्कूल में एक बोर्डर के रूप में पढ़ाई करने के लिए आ गयीं। उनके खुले विचारों वाले पिता चाहते थे कि वह एक अच्छी औपचारिक शिक्षा प्राप्त करें और जहाँ तक संभव हो सके पढ़ाई करें। सईदा ने लखनऊ के प्रतिष्ठित इसाबेला थोबर्न कॉलेज से स्नातक किया। स्कूल के समय में सईदा किताबी शिक्षा में कम बल्कि उसके माध्यम से एक नई दुनिया देखने और बनाने के विचार में अधिक रुचि रखती थी।
उनकी शादी लखनऊ के एक जज अब्बास रज़ा से हुई जब वे महज़ 19 साल की थीं। लेकिन उसके बाद जिस हवा में उन्होंने सांस ली, उसमें उन्हें एक अजीब सी घुटन महसूस हुई। सईदा मुखर और शरारती स्वभाव की थीं, बेबाक़ थीं,अपनी शर्तों पर जीवन जीने वाली थीं और शादी के बाद उनके हाथ से उनके स्वभाव के मूल गुण फ़िसलते हुए नज़र आये मानो अपना नहीं उधार का जीवन हो। जब उन्होंने रोना चाहा तो उन्हें मुस्कुराने के लिए कहा गया। और इसके पहले की यह विचारहीन और उधार की ज़िन्दगी उनके अंदर की चंचल लड़की को ख़त्म कर देती, उन्होंने तलाक ले लिया। उस समय उनके दो बेटे थे।
जब उनके लिए लखनऊ में रहना असंभव हो गया, तो उसने सोए हुए शहर को छोड़ शालीनता की हवा के लिए दिल्ली चली आयीं। यही वक्त था जब वे आकाशवाणी में समाचार वाचक के रूप में काम करने लगीं।
इससे पहले बीबीसी या आकाशवाणी द्वारा समाचार पढ़ने के लिए किसी महिला को नियुक्त नहीं किया गया था।
डगर से हट कर
स्वतंत्र भारत की पहली महिला न्यूज़ रीडर के रूप में सईदा बानो का देश के सामाजिक और राजनीतिक विकास के बारे में एक करीबी दृष्टिकोण था। उन्होंने एक टूटे हुए विवाह और अपने दम पर दो बेटों की परवरिश करते हुए विभाजन की पार्टीशन को भी देखा। अपनी बेबाक़ और निश्छल शख़्सियत से उन्होंने अपने जीवन में और साथ ही अपने आसपास की महिलाओं के लिए स्वतंत्रता के मायनों का लगातार विस्तार किया।
बानो ने हमें अपने मेमॉयर, डगर से हट कर (Off the Beaten Track) के माध्यम से उनके जीवन में जगह दी, जिसे उन्होंने 1994 में उर्दू में प्रकाशित किया था।
अपनी किताब में बानो ने उन मुखौटों का उल्लेख किया है जिन्हें उस समय की महिलाओं को पहनना पड़ता था और कैसे उन्हें अपनी भावनाओं और व्यक्तित्व को निगलना पड़ता था।
हालांकि उन्हें एक विद्रोही के रूप में देखा गया, लेकिन बानो विद्रोही नहीं थीं। उन्होंने केवल अपनी शर्तों पर जीवन जीने का फैसला किया।
अनंत संभावनाओं को उजागर करने वाली मशाल
1970 के दशक में जब वह लगभग 60 वर्ष की थीं, बीबी ने एक ऐसे व्यक्ति से विवाह किया जिसे वह दो दशकों से अधिक समय से जानती थीं।
सईदा बानो के व्यक्तित्व से यह सीखने को मिलता है की हमारे चाहे कितने भी सामाजिक रूप हों, उससे कहीं अधिक ज़रूरी है हमारी निजी शख़्सियत। हम हमेशा कोशिश करते हैं और खुद को रिश्तों में ढाल लेते हैं - माँ, बेटी, बहन, पत्नी आदि। सईदा बानो ने महिलाओं के लिए उन अनंत संभावनाओं की मशाल जला दी जो वे जीवन से हासिल कर सकती हैं। वह मशाल आज भी हर किसी के लिए अनगिनत गलियों और रास्तों में से अपना स्वयं का रास्ता चुनने के लिए चमक रही है।
क्योंकि बीबी की कहानी हमें सिखाती है कि अगर हम नहीं चाहते हैं तो हममें से किसी को भी घिसे पिटे हुए रास्ते पर नहीं चलना चाहिए बल्कि अपने अंदर की हिम्मत और आत्मविश्वास से अपना रास्ता ख़ुद बनाना चाहिए। क्योंकि जीवन की विषम से विषम परिस्थतियों में भी अपना रास्ता चुनने का हक़ स्पष्ट रूप से सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारा है।
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